
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित
हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने स्वामी रामभद्राचार्य को 58वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया. यह पुरस्कार उन्हें साहित्य और भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रदान किया गया. स्वामी जी ने इस सम्मान को भारतीय साहित्य और राम भक्ति की परंपरा का सम्मान बताया. उन्होंने कहा कि यह पुरस्कार उनके लिए गर्व का विषय है और यह भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाता है. दो वर्ष की आयु में दृष्टि खोने के बावजूद उन्होंने अपने ज्ञान और समर्पण से विश्व भर में लाखों लोगों को प्रेरित किया.
स्वामी रामभद्राचार्य ने जोर देकर कहा कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहिए. उनके अनुसार यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति का आधार है और इसमें जीवन के सभी पहलुओं को समेटा गया है. यह ग्रंथ न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों को भी प्रोत्साहित करता है. स्वामी जी ने बताया कि रामचरितमानस ने समाज को जोड़ने और नैतिकता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
स्वामी रामभद्राचार्य ने 100 से अधिक ग्रंथों की रचना की है जो संस्कृत और हिंदी साहित्य को समृद्ध करते हैं. उनकी रचनाएं भक्ति और ज्ञान का अनूठा संगम हैं. इसके अतिरिक्त उन्होंने समाज सेवा में भी उल्लेखनीय कार्य किए हैं. उनके द्वारा स्थापित संस्थान शिक्षा और संस्कृति के प्रसार के साथ-साथ दिव्यांगजनों के कल्याण के लिए कार्यरत हैं. स्वामी जी का मानना है कि साहित्य और भक्ति के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन संभव है.
स्वामी रामभद्राचार्य ने अपनी मांग को दोहराते हुए कहा कि रामचरितमानस को राष्ट्रीय ग्रंथ का दर्जा देने से भारतीय संस्कृति को वैश्विक मंच पर और अधिक सम्मान मिलेगा. उन्होंने सरकार से इस दिशा में कदम उठाने का अनुरोध किया. उनके अनुसार यह ग्रंथ सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत है और इसे अपनाने से समाज में एकता और समरसता बढ़ेगी.
स्वामी रामभद्राचार्य ने साहित्य और समाज सेवा में अपने कार्यों को जारी रखने का संकल्प लिया. वे युवाओं को भारतीय संस्कृति और साहित्य से जोड़ने के लिए और प्रयास करना चाहते हैं. उन्होंने अपने अनुयायियों से रामचरितमानस के संदेश को जीवन में अपनाने और दूसरों तक पहुंचाने का आह्वान किया. उनके अनुसार शिक्षा और जागरूकता ही समाज को सशक्त बना सकती है.