
गोवा/भोपाल/पटना। आज लोकतंत्र की हत्या करने वाला दिन है। जी हां आज ही के दिन 25 जून 1975 कांग्रेस की सत्ता देश पर विराजमान थी। इंदिरा गांधी तब देश की प्रधानमंत्री थी। इंदिरा गांधी पर चुनाव में धांधली का आरोप था, जिस पर कोर्ट का आदेश आ गया था।
इसमें उनकी संसदीय सदस्यता को रद्द कर दिया गया था। यानि वह प्रधानमंत्री के पद पर नहीं रह सकती थी। इसी के बीच इंदिरा ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और पूरा देश उस तानाशाही काल के अंधकार में समा गया। इसी न-उम्मीदी के दौर में एक रोशन दीप बनकर सामने आए लोकनारायण जय प्रकाश नारायण।
उन्होंने छात्र संगठन के साथ मिलकर इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का बिगुल फूंक दिया। इसी दौरान एक युवाओं की संघर्ष वाहिनी बनाई। इसी के सदस्य रहे कुमार कलानंद मणि Khabar Pradhan Media Organisation ने एक्सक्लूसिव बातचीत की और इमरजेंसी के दौर की यादें ताजा की , जाना कि उस दौर में माहौल कैसा था। आइए जानते ….
मणि जी बताते हैं, आज 25 जून 1975 की वह रात—जब श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा देश पर आपातकाल थोपा गया था—को 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह निर्णय मेरे जीवन में सीधे हस्तक्षेप करता हुआ तब सामने आया जब मुझे इसकी सूचना अगली सुबह लगभग 7 बजे मिली, और उसी दिन प्रातः 8:30 बजे मुझे सर्वोदयी नेता श्री सिद्धराज ढढ्ढा के साथ पटना में साहित्य सम्मेलन के सभागार में आयोजित एक सभा को संबोधित करने के “अपराध” में गिरफ़्तार कर लिया गया।
क्रांतिकारियों की जेल बना पटना का ये मैदान
हमें पटना के बोटेनिकल गार्डन में लाकर रखा गया। हमारे साथ छह-सात अन्य साथी भी गिरफ्तार हुए थे। उस समय तक आपातकाल के राजनीतिक और संवैधानिक प्रभावों की मुझे कोई ठोस जानकारी नहीं थी। वहीं पर श्री ढढ्ढा से तथा कुछ समय बाद पटना के तत्कालीन ज़िलाधिकारी श्री विजय दुबे से इस अभूतपूर्व स्थिति की वास्तविकता समझ में आई। स्वयं जिलाधिकारी भी किंकर्तव्यविमूढ़ थे—न उन्हें स्पष्ट निर्देश थे, न यह जानकारी कि हमारे साथ आगे क्या किया जाए।
गर्मी में पेड़ ने ठंडक
उन्होंने आगे बताया,’दिन भर की प्रचंड गर्मी में हम सभी ने पेड़ों की छांव में समय बिताया। संध्या होते-होते हमें फुलवारी शरीफ जेल भेज दिया गया। तब तक हमारे मन में यह स्पष्ट हो चुका था कि अब वर्षों जेल में रहना होगा—और मानसिक रूप से हमने उसी के लिए अपने को तैयार कर लिया था।’
आज कैसा है माहौल?
‘आज, आधी सदी बाद जब उस आपातकाल की स्मृति पुनः उठाई जा रही है, तो यह देखना विडंबनापूर्ण है कि वे राजनीतिक दल और संगठन, जिनका स्वयं का इतिहास और व्यवहार लोकतंत्र, समानता, बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता के प्रति संदेहास्पद रहा है—वही आज दिन-रात आपातकाल के विरुद्ध सबसे ऊँची आवाज़ में बोल रहे हैं।’
70 के दशक जैसी तीव्रता नहीं दिखाई देती
दूसरी ओर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल का डटकर विरोध करने वाले हज़ारों सच्चे लोकतंत्र-सेवियों में अब वैसी तीव्रता नहीं दिखाई देती। उनका मानना है कि आज का आईपी शासन तंत्र उस घोषित आपातकाल की तुलना में कई गुना अधिक भयावह है—देश के संविधान, लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए। उन्हें लगता है कि 50 वर्ष पुराने आपातकाल की चर्चा, वर्तमान शासन की दमनकारी नीतियों से ध्यान भटकाने का एक साधन बन चुकी है।
कैसा हो लोकतंत्र?
मेरे विचार में, यदि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है, और यदि वह सचमुच भविष्य की ओर देखना चाहता है, तो उसे 50 वर्ष पहले लगे आपातकाल की स्मृति से आगे बढ़ना चाहिए। इतिहास से सबक लेना आवश्यक है, किंतु उससे चिपके रहना नहीं।
जनता सर्वोपरि ?
उन्होंने बताया, याद रखना चाहिए कि 1977 में आपातकाल लागू करने वाली सरकार को भारत की जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता से बाहर कर दिया था। और महज तीन वर्ष बाद, 1980 में उसी जनता ने उसी पार्टी को पुनः सत्ता सौंप दी। अर्थात्, जनता ने उसे दंडित भी किया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में क्षमा भी।
“अतीत से बाहर निकलकर आगे बढ़ना चाहिए”
मणि जी कहते हैं, “मैं स्वयं उस आपातकाल का कभी पक्षधर नहीं रहा हूँ, न तब और न अब। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि एक परिपक्व लोकतांत्रिक समाज को अतीत के धब्बों से बाहर निकलकर अपने संविधान और उसकी मूल आत्मा—लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व—को और सुदृढ़ करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।”
(प्रोफाइल : कुमार कलानंद मणि
1971-74 सर्वोदय / भूदान आंदोलन
1974-78: संपूर्ण क्रांति आंदोलन, आपातकाल विरोध, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का राष्ट्रीय कार्यालय का प्रथम प्रभारी
1980 से गोवा
१. पीसफुल सोसाइटी, पश्चिम घाट बचाओ आंदोलन, नदी घाटी राष्ट्रीय मंच, स्वराज आदि विविध संगठन, नेटवर्क की स्थापना ।
कार्य विषय:
१. गांधी विचार शोध व प्रचार
२.पर्यावरण
३. प्रशिक्षण
४.लेखन)